पंखुरी के ब्लॉग पे आपका स्वागत है..

जिंदगी का हर दिन ईश्वर की डायरी का एक पन्ना है..तरह-तरह के रंग बिखरते हैं इसपे..कभी लाल..पीले..हरे तो कभी काले सफ़ेद...और हर रंग से बन जाती है कविता..कभी खुशियों से झिलमिलाती है कविता ..कभी उमंगो से लहलहाती है..तो कभी उदासी और खालीपन के सारे किस्से बयां कर देती है कविता.. ..हाँ कविता.--मेरे एहसास और जज्बात की कहानी..तो मेरी जिंदगी के हर रंग से रूबरू होने के लिए पढ़ लीजिये ये पंखुरी की "ओस की बूँद"

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Tuesday 26 March 2013

पिया बिना .......कैसी होली



कैसे मनाऊ मै होली पिया तेरे बिना...
ना चढ़ी हाथो में लाली...लगा के भी हिना...
फीके - फीके लगे मुझे रंग और गुलाल...
हर पल तरसे अँखियाँ..रहे तेरा ख्याल...
रंग लाल हो पीला..हरा या नीला..
ना भाये कोई रंग मुझे ..ना ये मौसम रंगीला...
कैसे मनाऊ मै होली पिया तेरे बिना...
तुम साथ होते हो तो रंग मुझे बहुत लुभाते  हैं...
मन में उमंग ..चेहरे पे ख़ुशी ले आते हैं..
अब तुम नहीं हो तो मैंने ये जाना...
वो सब रंग तो तुझे देख के मेरे चेहरे पे आते हैं ...
तेरे देखने से जब चेहरा मेरा..गुलाबी हो जाता है...
वो रंग तेरे साथ का मुझे सबसे ज्यादा भाता है..
अब जो तुम नहीं हो..तो धुंधलका सा है छा रहा...
लाल..हरा गुलाबी..कोई रंग मेरे मन को नहीं लुभा रहा...
रंगीला ये मौसम दिल को और भी तरसा रहा...
के आ जाओ ये विरह का मौसम नहीं सहा जा रहा...
दिल में रंगों का इन्द्रधनुष है नहीं खिला...
कैसे मनाऊ  मै होली पिया तेरे बिना...
कैसे मनाऊ मै..होली...
------------------------------पारुल'पंखुरी'

Saturday 23 March 2013

फागुन गीत मेरी आवाज में ...

मेरे प्यारे दोस्तों ब्लॉग की दुनिया में आये हुए मुझे अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ ..लेकिन जिस तरह आप सब ने मुझे अपनाया और अपना स्नेह दिया लगता ही नहीं की मै  यहाँ अभी नई  नई  आई हूँ ...मेरी कविताओं और विचारो को आपने अपनी सुन्दर   टिप्पणियों से सजा दिया ..जिससे मेरे ब्लॉग की खूबसूरती और भी बढ़ गई ...मुझे हर रोज कुछ नया करना अच्छा लगता है कुछ क्रिएटिव करने का चाव हमेशा मेरे मन में रहता है ..तो आज फिर मै   आप सबके सामने कुछ अलग लेकर आई हूँ ...आज जिस रचना की मै  बात कर रही हूँ उसका शीर्षक है "कौन रंग फागुन रंगे  ...." ये  मैंने नहीं लिखी है ...इसके कवि  हैं श्री दिनेश शुक्ल जी और ये सुन्दर कविता http://manaskriti.com/kaavyaalaya/ के सुन्दर कविता रुपी मोतियों में से एक मोती है ...मुझे इस कविता को recite करने का मौका दिया श्री विनोद तेवारी  जी  और वाणी मुरारका जी ने .....तो प्रस्तुत है आप सभी के लिए होली के उपलक्ष में ये सुन्दर सलोना फागुन गीत :-) सुन कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा ..मै  प्रतीक्षा में हूँ ..
                                                            ---आप सबकी प्यारी पारुल'पंखुरी'


कविता का audio  सुनने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक कीजिये फिर वह प्ले का बटन प्रेस कीजिये 

कौन रंग फागुन रंगे...

 कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन वसंत,
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ वसंत।

रोमरोम केसर घुली, चंदन महके अंग,
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।

रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग,
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।

पलट पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप,
रह रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।

मन टेसू टेसू हुआ तन ये हुआ गुलाल
अंखियों, अंखियों बो गया, फागुन कई सवाल।

होठोंहोठों चुप्पियाँ, आँखों, आँखों बात,
गुलमोहर के ख्वाब में, सड़क हँसी कल रात।

अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीदे छंद।

अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ,
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ सौ झूठ।

पारा, पारस, पद्मिनी, पानी, पीर, पलाश,
प्रंय, प्रकर, पीताभ के, अपने हैं इतिहास।

भूली, बिसरी याद के, कच्चेपक्के रंग,
देर तलक गाते रहे, कुछ फागुन के संग।
- दिनेश शुक्ल
* * *


Friday 22 March 2013

कविता की खोज में ......



लीजिये कविता दिवस आया भी और चला भी गया ...मुझे तो आज ही एक मित्र से पता चला की कल कविता-दिवस था ...कविता दिवस ...पर तो यही एक ख्याल आया की कविता है क्या ..बस इसी उधेड़ बुन में ये रचना बुनी मैंने ..अब आपको कैसी लगती है ये तो आप सब ही बताएँगे न :-) कविता दिवस की आप सभी कवि  जनो को हार्दिक शुभकामनायें :-)

क्या मेरी सोच मेरी कहानी है कविता
या नए भाव..नए शब्द..मीठी सी वाणी है कविता
वो सुबह सवेरे  हवाओ का चलना
और धीरे से मेरे कानो में घुलना
वो पंछियों की चहचहाहट
झुण्ड में पंख  फैलाना
या पके आमो के बगीचे में
कोयल का कुहू कुहू गाना
क्या हवाएं कोई संदेसा हैं लाती
किसे कोयल अपना मधुर संगीत है सुनाती
हजारो जल तरंगे..बजाती है सरिता
हर चीज में मुझे सुनाई देती है कविता
क्या है कविता
प्यार की सेंक  से ज़वा होती है ये
दर्द और पीड़ा शब्दों में जीती है ये
कभी आक्रोश बन के है निकलती
कभी व्यंग बाण से करे प्रहार
कभी सती ये कहलाये कभी कहलाये पतिता
कभी मरहम है लगाती
कभी रुलाती है कविता
मुझे तो अपने आंसुओ में भी सुनाई देती है कविता

------------------------पारुल'पंखुरी

Thursday 21 March 2013

सिलवटें ....










उलझी लट मोरी बारिश में ,
एक सिलवट रस्ते पे पड़ गई...
मोड़ पे वो टकराया मुझसे ,
एक सिलवट चेहरे पे पड़ गई...
नजरो से जब छुआ था उसने ,
एक सिलवट पलकों पे पड़ गई...
हाथ बढ़ाकर कलाई मरोरी ,
एक सिलवट चुनरी में पड़ गई...
हौले से उड़ाई जब उलझी लट ,
एक सिलवट साँसों पे पड़ गई ..
फूलो से किया प्यार इजहार,
एक सिलवट बातो पे पड़ गई..
बजी शेहनाई हुई बिदाई ,
एक सिलवट नातो पे पड़ गई...
मिलन का मौसम महका बदन,
एक सिलवट चादर पे पड़ गई ...
-------------------------------------पारुल'पंखुरी'

Thursday 14 March 2013

टुकड़े टुकड़े मन ...



बहता मन महकती पवन ...
आकांशा तारो को छूने की...
वक़्त ने ली एक अंगडाई ..
ओंधे मुह धरती पे आई ..
मिली तन्हाई.. मिली तन्हाई ..

मन टुकडो को समेटा ..
हिम्मत को फिर से लपेटा ..
मोड़ पर कमबख्त इश्क छुपा था ..
एक टुकड़ा उसने चुरा लिया..
रह गई सिर्फ परछाई ..
मिली तन्हाई.. मिली तन्हाई ..

साँसे अभी चल रही थी ..
गिर गिर के संभल रही थी ..
एक मोड़ पर मिल गए धागे ..
समझ के बढ़ गई मै रेशम..
उलझ के रह गया तन मन ...
मन टुकडो ने दम तोड़ दिया ..
आँख में तबसे नमी सी छाई ..
मिली तन्हाई मिली तन्हाई ..-
-----------------------------पारुल'पंखुरी'

Tuesday 12 March 2013

झांकते लोग...



भांति भांति के होते हैं लोग
कुछ भोले कुछ बडबोले
कुछ शर्मीले कुछ रंगीले
कुछ दौड़ते..भागते..खींचते,
कुछ बंद कमरों के पीछे से झांकते
झांकते हैं अपने ही दिमाग की खिडकियों से
क्यूकी उस घर में न कोई झरोखा है..न खिड़की
दिमाग की खिड़की में अपनी
दूरबीन लगा के.
जुगत भिड़ा के
बताते हैं....फलां...लड़के के साथ ,
नैन लड़ा रही है.... फलां...की लड़की।।

उन्हें बस झांकना है
किसी का भी सम्बन्ध किसी से भी टांकना है
कौन कब आया
कौन कब गया
बहीखाते के हिसाब के जैसे.. रखते हैं ये सब पता
किस्सा न हुआ हाजमे का चूरन हो गया
सुबह दोपहर शाम
नियम से खाते ..औरो को भी खिलाते
हो सड़क कितनी भी साफ़
चलते हैं ये कीचड़ के पानी में पैर छपछपाते।।


अपने घर में बिजली पानी है के नहीं
उसकी बिलकुल नहीं करते परवाह
"उस" के घर की बत्ती कब जली...कब बुझी
इन्ही..ब्रेकिंग न्यूज़ से अपनी बातो को देते रहते हवा...
इन हवाओ से शोले दूर तक बरसते हैं
जाने अनजाने कितने ही दामन ख़ाक हुआ करते हैं।।

अब कौन इन्हें  समझाए
कीचड़ के पानी में चलने में चतुराई कितनी है...
जिस दिन खुद गिरेंगे  गड्ढे में कीचड़ के..
तभी जानेंगे..कीचड़ की गहराई कितनी है।।
----------------पारुल'पंखुरी'

Friday 8 March 2013

मै स्त्री हूँ...


आज महिला दिवस है ...महिला जिससे सृष्टि की शुरुआत हुई जिसके  बिना  सृष्टि चल नहीं सकती ..उसके लिए एक दिन विशेष तौर पर मनाने का क्या औचित्य है . मेरी समझ से परे है ... जिस तरह से जनम से लेकर मृत्यु तक स्त्री के साथ अन्याय हो रहा है आज  भी हो रहा है ..ऐसे समय में एक दिन महिला दिवस के रूप में ???!!!! क्या ये महिलाओं को जगाने के लिए है?? या पुरुषो को बता रहे हैं हम की हाँ मै (स्त्री) भी अभी इस दुनिया का हिस्सा  हूँ ...शायद मेरी बातो से आप में से बहुत लोग सहमत नहीं हो किन्तु ये मेरे अपने विचार हैं ..जो रोज देखती हूँ टीवी में ,समाचार पत्रों में ...अपने आस पास ऐसे में मेरे मन से  बस इसी कविता का जनम हुआ ...




मै स्त्री हूँ...
अदभुत. अदुन्द
...अपरिहार्य...
प्रेम और स्नेह से पल में..

बंधने वाली...

पिता-भाई ..पति-पुत्र..के नियमो में..

चलने वाली..

मै स्त्री हूँ...

मैंने सदैव स्त्री धर्म निभाया है...

मृत शय्या पर पति की...

होम होते स्त्री को ही पाया है...

पुरुष जो कहता है ..वो दाता है...

नारी के बिना उसका  वंश नहीं चल पाता है...

शारीरिक क्षमता की है अगर उसके पास धार..

तो मानसिक क्षमता की है मेरे 
पास तलवार..

मै स्त्री हूँ...

ईश्वर ने मुझे अपनी कल्पनाओं से सजाया है...

सहनशक्ति मेरी कमजोरी नहीं...

त्याग की प्रतिमूर्ति बना ईश ने..

मुझे पृथ्वी पर  उतारा है...


मै स्त्री हूँ..
मै हूँ  ममत्व से भरी आंगनवारि
. ..
नए अंकुर फूटते मुझमे ...

खिलती नव्या फुलवारी...

फिर भी मुझे हेय दृष्टि से देखा जाता..

घिनोनी नजरो से यहाँ वहा..

मेरे शरीर को भेदा जाता..

दाव लगते ही अस्मत को कुचला जाता..

इच्छाओ.. भावनाओं को दिन-रात मसला  जाता..

कभी कोख में मारता ..कभी  जिन्दा कूड़े के ढेर में फेंकता ..

कभी कर देता  सौदा...कभी दहेज़ का दानव मुझे खा जाता..

हर तरफ मेरी सिसकारियो की आवाज है...

कहीं चल रही जिस्मफरो
शी मेरी
 ..कहीं खून की बौछार है..

मै स्त्री हूँ..

सुन ले ओ अधमक !! 
तुझे स्त्री की हाय 
में जलना होगा..
स्त्री के बिना तुझे दुनिया में सड़ना  होगा.. 

पुरुषत्व की इच्छाओ को..

तड़प तड़प के मरना होगा..

मै नेत्र हूँ ...

शिव का तीसरा नेत्र ...

जिस दिन खुला चारो और..

महाप्रलय एवं तांडव होगा..

तांडव होगा...
                   
----पारुल 'पंखुरी '    

pictures credit goes to google     

Thursday 7 March 2013

सिरफिरा फूल ...
















कहीं दूर सुंदरवन में...थी एक मनोहर वृक्षावली ...
इन्द्रधनुषी फूल खिलते  थे..मुस्काती  हर पल्लव और डाली...
अनोखा था एक  वृक्ष  अकेला ..मंजुल से उस कानन में..
बारह-मास में फूल सिरफिरे...खिलते थे बस सावन में...

पुष्प निराले भाग्य पर अपने..इठलाया बड़ा  करते थे....
हँसते थे हर रोज सवेरे..हर शाम शरारत करते थे...
फिर आया एक दिवस तूफां...दरख़्त  को जड़  से था हिलाया...
सिरफिरा पुष्प हो अधमरा ..डाली से नीचे आया...
जाने किस महीन डोरी से... बंधा था वो शाख से ऐसे...
नवजात शिशु बंधा होता है...जन्म समय में मात से जैसे...

निराले उस वृक्ष पर ..लटका अनमना सा वो फूल...
हलकी सी हवा भी डराती...चुभती उसको जैसे शूल...
पल-प्रतिपल सहम  जाता..किस्मत पे अपनी था रोता...
जब कभी भी चलता.. सुगन्धित कोई पवन का झोंका...

शनै:-शनै: वो  हो रहा था निष्प्राण...
न धरती रही उसकी..ना अब तक मिला आसमान..
जाने कब तक उस पुष्प को..यू डर डर के जीना होगा...
नेह-स्पर्श से "कुछ" जिल जाएगा ..या पैरो तले रून्दना होगा....
-----------पारुल'पंखुरी'

Sunday 3 March 2013

गिरधर से पयोधर...



प्यारे दोस्तों होली आने वाली है ..मुझे पसंद भी बहुत है ..रंग गुलाल ..लेकिन होली का नाम आते ही सबसे पहले जो मेरे मन  में आते  है वो है मेरे कृष्णा ....उन्ही की कृपा से मैंने ये भजन उनके लिए लिखा है ...और इसकी धुन बनाकर इसको  गाने का भी प्रयास किया है ...मेरी कोशिश आपको कैसी लगी ये तो आप ही मुझे बताएँगे ...भजन का ऑडियो लिंक संलग्न है..सुनने के लिए प्ले के बटन पर क्लिक कीजिये









कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...
बंसी मधुर बजा के अपनी जादू कोई कर जा रे ...
कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...

राधा का मन विरह से आकुल ..कब से देखे बाट रे ..
सावन सूखा बीते कान्हा ..तू आया ना बरसात रे ...
कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...


मोरमुकुट किशना तुम कारे ...श्याम रंग के बादल सारे ...
ले बादल का रूप कन्हैया .. झम -झम बरसो आज रे ....
कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...

ग्वाल बाल गोपी हैं पुकारें ...कब डारोगे प्रीत फुहारें ..
जलती गैया जलते उपवन ...हर लो अब ये त्रास रे ...
कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...
कान्हा तू गिरधर से पयोधर आज बन जा रे ...

पयोधर---बादल 

--------------पारुल'पंखुरी '















































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